बराक ओबामा की युद्ध समाप्ति की घोषणा के साथ ही शांति और जनवाद के लिए विनाशकारी हथियारों की तलाश में इराक आई अमेरिकी सेनाएं स्वदेश लौटने लगी है। यह अलग बात है कि विनाशक हथियारों की तलाश का सच उजागर होने तक इराक में अब न शांति बची है और न जनवाद के लौटने की संभावना ही। वास्तव में राष्ट्रपति ओबामा की अधिकारिक घोषणा से दो सप्ताह पूर्व ही अमेरिकी सेनाओं ने स्वदेश लौटना शुरू कर दिया था। यह वापसी इराकी हितों की पूर्ति की मानवीय भाषा नहीं बल्कि अमेरिकी घरेलू राजनीति के दबाव की प्रतिध्वनि भर है। सात साल से इराक में फंसकर अमेरिका अपने 4400 से अधिक सैनिकों को गंवा चुका है। वियतनाम युद्ध के बाद यह अमेरिका का सबसे बड़ा मानवीय एवं आर्थिक नुकसान है। शांति अभियान के नाम पर कई वष्रो से इराक में टिकी सेनाओं की बर्बरता और क्रूरता के नए अमेरिकी इतिहास का उच्चारण भी दस लाख से अधिक इराकी मौतों में स्पष्ट सुनाई देता है। उस पर अमेरिका निदशित जनवाद की वापसी देखिए कि छह महीने पहले मार्च 2010 में चुनाव हो जाने के बाद भी आज तक इराक में चुनी हुई सरकार एक दिवास्वप्न ही है। चुनाव में सबसे बड़े दलों के रूप में उभरे सुन्नी और शिया धड़ों में एकता के आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते है। चुनाव के बाद इराक में राजनीतिक स्थिरता की आशा और मंद हो गई है। कल तक इराक पर कब्जा अमेरिका का साम््राज्यी मंसूबा था अबकी बार की वापसी परिस्थितियों का बुलावा हो सकती है। अमेरिकी मंसूबे सर्वविदित है मगर सबसे आश्चर्यजनक गृहयुद्ध में फंसे इराक की इस तबाही पर दुनिया के प्रगतिशीलों और जनवादियों की खामोशी है। दरअसल अमेरिकी हमले के बाद इराक गृहयुद्ध में फंसकर अब नये संकट की ओर बढ़ चला है। इसके फलस्वरूप लाखों लोग मर रहे है। विस्थापित हुए लोग विद्रोही, आतंकवादी होकर संगठित अपराधों में शामिल हो रहे हैं। इराकी गृहयुद्ध व यहां के संघष्रो का सांप्रदायीकरण न केवल इराक व मध्यपूर्व वरन् पूरी दुनिया के लिए अशुभ संकेत है। यह विनाशकारी गृहयुद्ध चक्राकार प्रभाव वाला है, जो मध्यपूर्व के साम्प्रदायिक व संकीर्ण अलगाववादी आंदोलनों के लिए अलगाववादी भावनाएं उकसाकर पूरे क्षेत्र के लिए अस्थिरता, विप्लव, युद्ध व विभाजन की पटकथा लिखेगा। गृहयुद्ध कहीं भी हो उसमें सीमा पार फैलने की अभिवृत्ति सदा बनी रहती है। गृहयुद्ध पड़ोसी अलगाववादी संघष्रो के लिए नई जमीन तैयार करते है। यही कारण है कि इराकी गृहयुद्ध के साम्प्रदायिकता जनित संभावित विभाजन के खतरे पूरे मध्यपूर्व क्षेत्र में प्रतिध्वनित होने की पूरी आशंका है। इराक के पड़ोसी बहरीन, कुवैत व सऊदी अरब में बड़ी शिया आबादी है। सऊदी अरब की दस प्रतिशत आबादी शिया है जिसके निवास का केन्द्र सऊदी अरब का सर्वाधिक तेल समृद्ध पश्चिमी प्रांत है। सुन्नी शासकों वाले देश बहरीन की बहुमत आबादी भी शिया है जो कभी भी संगठित होकर शासकों के लिए चुनौती बन सकती है। इसी प्रकार भौगोलिक रूप से ईरान, तुर्की व सीरिया से सटे उत्तरी इराक में निर्णायक कुर्द अल्पसंख्यक आबादी है जो किसी भी समय कुर्दो के स्वर्ग में परिवर्तित हो सकने की संभावनाएं रखती है। इराकी गृहयुद्ध व मध्यपूर्व के सामाजिक संघष्रो में कुर्द स्वाभाविक व ऐतिहासिक रूप से विभाजन के सबसे मजबूत दावेदार है। कुदां की अपनी अलग भाषा- संस्कृति व इतिहास है। विभाजन पश्चात विश्व समुदाय के सबसे अधिक समर्थन की संभावनाओं वाली कुर्द जाति यदि स्वतंत्रता की घोषणा करती है तो इराक की सीमाओं से सटी ईरान, तुर्की व सीरिया की कुर्द आबादी को भी ऐसा करने से नहीं रोका जा सकता है। याद रहे कि कुर्दिश वर्क्स पार्टी नामक अतिवादी संगठन इराक की जमीन से कुर्दिस्तान की स्थापना के लिए लगातार संघषर्रत रहा है जिसे कुर्दो का बड़ा समर्थन हासिल है। सद्दाम हुसैन के बाद इराक से कुर्द आंदोलन को मिलने वाली ऊर्जा का नया ाोत अब क्षाइल हो चुका है। केवल कुर्द ही आजादी चाहने वाले नहीं है। इराक के शिया नेता अब्दुल अजीज हाकिम इराकी शिया क्षेत्र के लिए स्वतंत्रता की मांग कर चुके है। अब शिया-सुन्नियों का नया सांप्रदायिक संघर्ष इस अलगाववादी भावना को भड़काकर निर्णायक सांप्रदायिक विभाजन का अहम प्रेरणा ाोत बन सकता है। अलगाववादी संघष्रो के विकास को समझना सरल है। अलगाववादी आंदोलन उनको कुचले जाने से पूर्व अपने चरम पर रहते हुए अपने जैसे अनेक संघष्रो के लिए ऊर्जा व प्रेरणा बनकर नये संघष्रो के जन्म का कारण बनते है। इसी संदर्भ में इराक के पड़ोसी देशों की गतिविधियां अनावश्यक रूप से खतरनाक अतिवादी संकेत दे रही है। ध्यान रहे कि इराक के फलूजा में सुन्नी विद्रोहियों व अमेरिकी सेना के मध्य संघष्रो का बहरीन की सुन्नी आबादी ने सड़कों पर उतरकर जोरदार विरोध किया था। इसी प्रकार कुर्द बहुल उत्तरी इराकी सीमा पर इरानी कुदां में व्यापक असंतोष था। वहीं इराक में शियाओं के संघष्रो को देखकर सऊदी अरब के शियाओं ने भी बेहतर राजनीतिक व आर्थिक सुविधाओं के लिए राज्य पर दवाब डालना शुरू कर दिया। प्रतिक्रिया स्वरूप सऊदी शासकों के उनके खिलाफ सांप्रदायिक अभियानों व राजनीतिक हमलों में भी तेजी आयी। इराक गृहयुद्ध इसी प्रकार चलते रहने पर इराकी सुन्नी जेहादी नौजवान सऊदी अरब का रुख कर सकते है जो सऊदी कट्टरपंथी नौजवानों को स्थानीय शासकों के खिलाफ संघर्ष की नई चेतना व ऊर्जा दे सकता है। अलगाववाद एक प्रकार का संक्रामक रोग है। इसीलिए अमेरिकी सेना के खिलाफ इराकी सुन्नी लड़ाकुओं का गठबंधन सऊदी लड़ाकुओं का विद्रोह भी बन सकता है। इसी प्रकार ईरान द्वारा इराकी शियाओं को सहायता ईरान के अजेरी व बलूच जैसे अल्पसंख्यकों की प्रेरणा का माध्यम बन सकता है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान की आजादी के लिए बलूचों का अन्तर्सम्बन्ध उल्लेखनीय है। गृहयुद्ध के कारण पड़ोसी देशों में इराकियों का पलायन या विस्थापितों का बहाव भी इन संघष्रो के लिए जिंदा व चलते-फिरते इश्तहारों की तरह है। जो पड़ोसी देशों की स्थिरता के लिए बुरे लक्षणों जैसा है। केवल कुवैत में ही दस लाख से अधिक इराकी विस्थापित है। जिसमें एक तिहाई से अधिक शिया है। कुछ सौ हजार शिया आबादी का कुवैत की तरफ बहाव कुवैत के पूरे सांप्रदायिक संतुलन को बिगाड़ने के लिए काफी है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि ऐसे व्यापक व विनाशकारी गृहयुद्ध से होने वाले विभाजन को कोई नहीं रोक पाया है। परन्तु उससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि इराक को इन हालात तक पहुंचाने वाले अमेरिका की वापस होती सेना ही अब इराक व उसके विभाजन के बीच खड़ी है। इसके अलावा यह भी सच्चाई है कि अमेरिकी सेना की यह उपस्थिति अतिवादी संगठनों के भर्ती विज्ञापन की तरह काम कर रही थी। इस जटिल विरोधाभास के बावजूद एक बात निश्चित है कि इराक के पास आज खोने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।
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