Monday, September 20, 2010

खोने के सिवा कुछ नहीं इराक के पास

बराक  ओबामा की युद्ध समाप्ति की घोषणा के साथ ही शांति और जनवाद के लिए विनाशकारी हथियारों की तलाश में इराक आई अमेरिकी सेनाएं स्वदेश लौटने लगी है। यह अलग बात है कि विनाशक हथियारों की तलाश का सच उजागर होने तक इराक में अब न शांति बची है और न जनवाद के लौटने की संभावना ही। वास्तव में राष्ट्रपति ओबामा की अधिकारिक घोषणा से दो सप्ताह पूर्व ही अमेरिकी सेनाओं ने स्वदेश लौटना शुरू कर दिया था। यह वापसी इराकी हितों की पूर्ति की मानवीय भाषा नहीं बल्कि अमेरिकी घरेलू राजनीति के दबाव की प्रतिध्वनि भर है। सात साल से इराक में फंसकर अमेरिका अपने 4400 से अधिक सैनिकों को गंवा चुका है। वियतनाम युद्ध के बाद यह अमेरिका का सबसे बड़ा मानवीय एवं आर्थिक नुकसान है। शांति अभियान के नाम पर कई वष्रो से इराक में टिकी सेनाओं की बर्बरता और क्रूरता के नए अमेरिकी इतिहास का उच्चारण भी दस लाख से अधिक इराकी मौतों में स्पष्ट सुनाई देता है। उस पर अमेरिका निदशित जनवाद की वापसी देखिए कि छह महीने पहले मार्च 2010 में चुनाव हो जाने के बाद भी आज तक इराक में चुनी हुई सरकार एक दिवास्वप्न ही है। चुनाव में सबसे बड़े दलों के रूप में उभरे सुन्नी और शिया धड़ों में एकता के आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते है। चुनाव के बाद इराक में राजनीतिक स्थिरता की आशा और मंद हो गई है। कल तक इराक पर कब्जा अमेरिका का साम््राज्यी मंसूबा था अबकी बार की वापसी परिस्थितियों का बुलावा हो सकती है। अमेरिकी मंसूबे सर्वविदित है मगर सबसे आश्चर्यजनक गृहयुद्ध में फंसे इराक की इस तबाही पर दुनिया के प्रगतिशीलों और जनवादियों की खामोशी है। दरअसल अमेरिकी हमले के बाद इराक गृहयुद्ध में फंसकर अब नये संकट की ओर बढ़ चला है। इसके फलस्वरूप लाखों लोग मर रहे है। विस्थापित हुए लोग विद्रोही, आतंकवादी होकर संगठित अपराधों में शामिल हो रहे हैं। इराकी गृहयुद्ध व यहां के संघष्रो का सांप्रदायीकरण न केवल इराक व मध्यपूर्व वरन् पूरी दुनिया के लिए अशुभ संकेत है। यह विनाशकारी गृहयुद्ध चक्राकार प्रभाव वाला है, जो मध्यपूर्व के साम्प्रदायिक व संकीर्ण अलगाववादी आंदोलनों के लिए अलगाववादी भावनाएं उकसाकर पूरे क्षेत्र के लिए अस्थिरता, विप्लव, युद्ध व विभाजन की पटकथा लिखेगा। गृहयुद्ध कहीं भी हो उसमें सीमा पार फैलने की अभिवृत्ति सदा बनी रहती है। गृहयुद्ध पड़ोसी अलगाववादी संघष्रो के लिए नई जमीन तैयार करते है। यही कारण है कि इराकी गृहयुद्ध के साम्प्रदायिकता जनित संभावित विभाजन के खतरे पूरे मध्यपूर्व क्षेत्र में प्रतिध्वनित होने की पूरी आशंका है। इराक के पड़ोसी बहरीन, कुवैत व सऊदी अरब में बड़ी शिया आबादी है। सऊदी अरब की दस प्रतिशत आबादी शिया है जिसके निवास का केन्द्र सऊदी अरब का सर्वाधिक तेल समृद्ध पश्चिमी प्रांत है। सुन्नी शासकों वाले देश बहरीन की बहुमत आबादी भी शिया है जो कभी भी संगठित होकर शासकों के लिए चुनौती बन सकती है। इसी प्रकार भौगोलिक रूप से ईरान, तुर्की व सीरिया से सटे उत्तरी इराक में निर्णायक कुर्द अल्पसंख्यक आबादी है जो किसी भी समय कुर्दो के स्वर्ग में परिवर्तित हो सकने की संभावनाएं रखती है। इराकी गृहयुद्ध व मध्यपूर्व के सामाजिक संघष्रो में कुर्द स्वाभाविक व ऐतिहासिक रूप से विभाजन के सबसे मजबूत दावेदार है। कुदां की अपनी अलग भाषा- संस्कृति व इतिहास है। विभाजन पश्चात विश्व समुदाय के सबसे अधिक समर्थन की संभावनाओं वाली कुर्द जाति यदि स्वतंत्रता की घोषणा करती है तो इराक की सीमाओं से सटी ईरान, तुर्की व सीरिया की कुर्द आबादी को भी ऐसा करने से नहीं रोका जा सकता है। याद रहे कि कुर्दिश वर्क्‍स पार्टी नामक अतिवादी संगठन इराक की जमीन से कुर्दिस्तान की स्थापना के लिए लगातार संघषर्रत रहा है जिसे कुर्दो का बड़ा समर्थन हासिल है। सद्दाम हुसैन के बाद इराक से कुर्द आंदोलन को मिलने वाली ऊर्जा का नया ाोत अब क्षाइल हो चुका है। केवल कुर्द ही आजादी चाहने वाले नहीं है। इराक के शिया नेता अब्दुल अजीज हाकिम इराकी शिया क्षेत्र के लिए स्वतंत्रता की मांग कर चुके है। अब शिया-सुन्नियों का नया सांप्रदायिक संघर्ष इस अलगाववादी भावना को भड़काकर निर्णायक सांप्रदायिक विभाजन का अहम प्रेरणा ाोत बन सकता है। अलगाववादी संघष्रो के विकास को समझना सरल है। अलगाववादी आंदोलन उनको कुचले जाने से पूर्व अपने चरम पर रहते हुए अपने जैसे अनेक संघष्रो के लिए ऊर्जा व प्रेरणा बनकर नये संघष्रो के जन्म का कारण बनते है। इसी संदर्भ में इराक के पड़ोसी देशों की गतिविधियां अनावश्यक रूप से खतरनाक अतिवादी संकेत दे रही है। ध्यान रहे कि इराक के फलूजा में सुन्नी विद्रोहियों व अमेरिकी सेना के मध्य संघष्रो का बहरीन की सुन्नी आबादी ने सड़कों पर उतरकर जोरदार विरोध किया था। इसी प्रकार कुर्द बहुल उत्तरी इराकी सीमा पर इरानी कुदां में व्यापक असंतोष था। वहीं इराक में शियाओं के संघष्रो को देखकर सऊदी अरब के शियाओं ने भी बेहतर राजनीतिक व आर्थिक सुविधाओं के लिए राज्य पर दवाब डालना शुरू कर दिया। प्रतिक्रिया स्वरूप सऊदी शासकों के उनके खिलाफ सांप्रदायिक अभियानों व राजनीतिक हमलों में भी तेजी आयी। इराक गृहयुद्ध इसी प्रकार चलते रहने पर इराकी सुन्नी जेहादी नौजवान सऊदी अरब का रुख कर सकते है जो सऊदी कट्टरपंथी नौजवानों को स्थानीय शासकों के खिलाफ संघर्ष की नई चेतना व ऊर्जा दे सकता है। अलगाववाद एक प्रकार का संक्रामक रोग है। इसीलिए अमेरिकी सेना के खिलाफ इराकी सुन्नी लड़ाकुओं का गठबंधन सऊदी लड़ाकुओं का विद्रोह भी बन सकता है। इसी प्रकार ईरान द्वारा इराकी शियाओं को सहायता ईरान के अजेरी व बलूच जैसे अल्पसंख्यकों की प्रेरणा का माध्यम बन सकता है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान की आजादी के लिए बलूचों का अन्तर्सम्बन्ध उल्लेखनीय है। गृहयुद्ध के कारण पड़ोसी देशों में इराकियों का पलायन या विस्थापितों का बहाव भी इन संघष्रो के लिए जिंदा व चलते-फिरते इश्तहारों की तरह है। जो पड़ोसी देशों की स्थिरता के लिए बुरे लक्षणों जैसा है। केवल कुवैत में ही दस लाख से अधिक इराकी विस्थापित है। जिसमें एक तिहाई से अधिक शिया है। कुछ सौ हजार शिया आबादी का कुवैत की तरफ बहाव कुवैत के पूरे सांप्रदायिक संतुलन को बिगाड़ने के लिए काफी है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि ऐसे व्यापक व विनाशकारी गृहयुद्ध से होने वाले विभाजन को कोई नहीं रोक पाया है। परन्तु उससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि इराक को इन हालात तक पहुंचाने वाले अमेरिका की वापस होती सेना ही अब इराक व उसके विभाजन के बीच खड़ी है। इसके अलावा यह भी सच्चाई है कि अमेरिकी सेना की यह उपस्थिति अतिवादी संगठनों के भर्ती विज्ञापन की तरह काम कर रही थी। इस जटिल विरोधाभास के बावजूद एक बात निश्चित है कि इराक के पास आज खोने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।

     

सामाजिक न्याय या जाति का संघर्ष

आरक्षण का आंदोलन एक बार फिर उत्पात मचा रहा है। हालांकि आरक्षण के विचार की उत्पति सामाजिक विषमता जनित न्याय की ऐतिहासिक आवश्यकता का प्रतिफल है, परंतु हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों उठा आरक्षण का आंदोलन सामाजिक समानता की न्यायिक मांग से कहीं ज्यादा जाट राजनीति और सामाजिक वर्चस्व की लड़ाई का ऐसा भावनात्मक मुद्दा है, जो नए सामाजिक संघर्षो की भी जमीन तैयार कर रहा है। इसके अलावा राजस्थान के गुर्जर आरक्षण आंदोलन ने भी इस आंदोलन के लिए प्रेरणा का काम किया है। वास्तव में आरक्षण दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व देकर सामाजिक समानता की ओर ले जाने की राह का एक माध्यम भर है। केवल आरक्षण ही सामाजिक न्याय की संपूर्ण व्याख्या या व्यवस्था नहीं है। इस संदर्भ में यदि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाण का उदाहरण देखें तो यहां की स्थिति एकदम भिन्न है। यहां सवाल आनुपातिक प्रतिनिधित्व से कहीं अधिक अपने सामाजिक प्रभुत्व को बनाए रखने का है और आरक्षण की यह मांग भी उसी प्रभुत्व को बनाए रखने की एक समुदाय विशेष की रणनीति ही दिखाई देती है। वास्तव में यदि देखा जाए तो आरक्षण और आरक्षण के लिए संघर्ष अब नई तरह की सामाजिक अवस्था में प्रवेश कर चुका है। भूमंडलीकरण के इस दौर में जब सरकारी नौकरियों की संभावनाएं दिन-प्रतिदिन सीमित हो रही हैं, तब हरियाण और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संसाधनों पर काबिज जातियों का आक्रामक आंदोलन एक जाति विशेष की लामबंदी के राजनीतिक नारे से कुछ अधिक दिखाई नहीं देता। इन तरह आज आरक्षण न्याय की मांग नहीं, बल्कि एक तरह के राजनीतिक जातिवाद और अपनी शक्ति का प्रदर्शन मात्र बनकर रह गया है। असल में इस राजनीतिक जातिवाद को एक दिशाहीन लोकतांत्रिक विकास की एक विसंगति के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह जनवादी व्यवस्था में वोट की राजनीति के लिए सामुदायिक ध्रुवीकरण के परिणामस्वरूप पैदा होता है। वोट की राजनीति के कारण ही पहचान की राजनीति और उसकी खेमेबंदी का जन्म होता है, जो अंततोगत्वा एक प्रकार के राजनीतिक जातिवाद में परिवर्तित होता है। जिस प्रकार राजनीतिक जातिवाद का सहारा लेकर राजस्थान में कर्नल बैंसला या किरोडीमल मीणा नेता बने, उसे देखते हुए ही हरियाणा और प. उत्तर प्रदेश के कुछ संपन्न लोगों को भी ऐसे आंदोलन के लिए प्रेरणा मिल रही है। वास्तव में हरियाणा के इस आरक्षण आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाट वर्चस्व, जाट राजनीति के अंदरूनी समीकरण और परंपरागत दबंगई की मानसिकता सरीखे कई पहलू हैं। हरियाणा में भजन लाल युग के खात्मे से सत्ता की लड़ाई दो जाट क्षत्रपों में बंट चुकी है। इस कारण हरियाणा की पूरी राजनीति जाटों की खेमेबंदी के समीकरणों में उलझकर रह गई है। इसी कारण से जाटों का यह राजनीतिक जातिवाद एक अलग रूप एवं ऊंचाई पर दिख रहा है। आरक्षण का यह आंदोलन केंद्र सरकार के खिलाफ जाए या राज्य सरकार के, एक बात तो तय है कि इसका नुकसान जाटों के नेता के तौर पर स्थापित होने की कोशिश कर रहे वर्तमान जाट मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को ही होगा। आखिर इस आंदोलन पर ओमप्रकाश चौटाला की खामोशी के भी निहितार्थ हैं। यदि आरक्षण के इस आंदोलन की कमान चौटाला परिवार प्रत्यक्ष तौर पर संभालता तो जाटों में दो फाड़ होनी निश्चित थी। चौटाला की खामोशी कम से कम आरक्षण पर जाटों की एकता को सुनिश्चित कर ही रही है। हरियाणा में सत्ता और विपक्ष दोनो ही तरफ जाट नेता हैं और एक की सत्ता गंवाने का अर्थ है दूसरे को सत्ता की गारंटी। इस आरक्षण आंदोलन की उग्रता में एक जाति विशेष की दबंगई की मानसिकता और उसको मिल रही चुनौतियां भी हैं। जाट हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक दबंग जाति के रूप में जानी जाती है, परंतु अब इन्हें चुनौतियां भी मिल रही हैं जिससे जाटों में एक प्रकार की व्याकुलता देखी जा सकती है। यही व्याकुलता इस उग्र आंदोलन के लिए ऊर्जा का काम कर रही है। पिछले दिनों गोहाना और मिर्चपुर में दलित कांड जाट जाति की दबंगई का जीवंत उदाहरण है तो वहीं यह घटना उनकी इस दबंग मानसिकता को मिल रही चुनौती का भी सबूत है। ध्यान रहे हिसार के मिर्चपुर कांड में राज्य सरकार के शुरू में असहयोगी रवैये के बावजूद न्यायपालिका ने इस मामले में दखल देते हुए 123 लोगों को जेल भिजवाया। देखने से तो यह महज एक गांव की ही घटना भर थी, लेकिन जाटों की दबंग मानसिकता के जानकार समझ सकते हैं कि इसे पूरा जाट समुदाय अपने अहम की लड़ाई मान रहा है। यही कारण है कि इस घटना के बाद यह जाति अपनी दबंगई और शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए आंदोलित हो रही है। जो शक्ति प्रदर्शन राज्य और केंद्र सरकार को झुका सकता है, उसके सामने गांव की गरीब दलित जातियों की क्या बिसात? परंतु छह दशक के लोकतांत्रिक व्यवहार ने आंशिक ही सही, भारतीय जनमानस में प्रतिरोध की क्षमता का विकास तो किया ही है। आरक्षण पर प्रतिरोध का यही स्वर पिछले दिनों एक टीवी चैनल की चर्चा में जाने-माने दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद के वक्तव्य में सुनाई दिया। उन्होंने इस आरक्षण की मांग को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि दलित और आदिवासी आरक्षण को छोड़कर बाकी किसी भी तरह की आरक्षण की मांग एक सामाजिक और राजनीतिक पाखंड है। यह एक ऐसे दलित चिंतक का वक्तव्य है, जो देश के सबसे मजबूत दलित राजनीतिक आंदोलन के बौद्धिक आधार का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अब यदि भारतीय दलित राजनीति इस दिशा में अपनी सोच और रणनीति तय करती है, तब इसे देश में एक नए सामाजिक संघर्ष की आहट ही समझा जाना चाहिए। यह नया सामाजिक संघर्ष भारतीय गणराज्य के विकास की कौन-सी पटकथा लिखेगा, यह आसानी से समझा जा सकता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आसपास में कुछ जातियों की राजधानी को बंधक बनाने की क्षमता, स्थिति एवं समय-समय पर उससे मिलने वाला प्रतिफल भी इस प्रकार के आंदोलनों के लिए ऊर्जा का काम करता है। दरअसल, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कुछ खास दबंग जातियों ने अपनी इसी क्षमता के कारण ब्लैकमेलिंग की एक नई राजनीति ईजाद की है। इसका ताजातरीन उदाहरण है हाल में मथुरा में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन, जिससे सत्ता से लेकर विपक्ष तक हर रंग की राजनीति चिंतित हो गई और देश के सभी नेता मथुरा दौड़ पडे़, दूसरी तरफ कई वर्षो से अपनी जमीन बचाने के लिए उड़ीसा में पास्को कंपनी के विरुद्ध जारी आंदोलन है जिसकी सुध लेने की फुर्सत भी किसी को नहीं। वास्तव में एक जाति विशेष की राजधानी को बंधक बनाने की क्षमता आज के ब्लैकमेलिंग की राजनीति को बेहद रास आ रही है। कभी दिल्ली के पानी को रोक देने, कभी दूध बंद कर देने और कभी दिल्ली को चारों तरफ से सील करने की दबंग धमकियां इन उत्पातियों के प्रमुख औजार हैं। दिल्ली की जीवन रेखा को ध्वस्त करने की इनकी ताकत ही इनके आंदोलनों की जीवनी शक्ति है और इसके सामने सरकार तुरंत झुकती भी है। परंतु इस प्रकार की अराजक राजनीति का फैलाव राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा है जो अंततोगत्वा देश में एक नए प्रकार की राजनीतिक अराजकता और खुली गुंडागर्दी की नई परंपरा की राह तैयार करने का काम करेगा। वास्तव में इस तरह की स्थितियां इन क्षेत्रों में व्यापक सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलनों के अभाव एवं वाम जनवादी आंदोलनों में आए भटकाव के कारण भी पैदा हुइ है। यदि प्रगतिशील शक्तियां बगैर वस्तुगत स्थितियों को जाने और उनका विश्लेषण किए अपनी विचारधारा को एक फॉर्मूले की तरह आजमाते हुए राजनीति करेंगी तो वह भी एक प्रकार के संकीर्णतावाद का ही शिकार होंगी। सामाजिक संरचना का विश्लेषण किए बिना सामाजिक सवालों से बचकर इन क्षेत्रों में आर्थिक आधार पर वर्ग संघर्षो की बात करना बेमानी है। प. उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के ये ऐसे इलाके हैं जहां परंपरागत विश्लेषणों से हटकर वस्तुस्थिति के मुताबिक पहल करने की आवश्यकता है। मध्यम और छोटी जोत वाले किसानों की बहुलता वाले ये इलाके अ‌र्द्ध कबीलाई और सांमती अवशेषों वाले मिश्रित अधकचरे समाज का उदाहरण हैं, जहां आर्थिक से अधिक सामाजिक सवाल प्रमुख हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

कलह से त्रस्त केंद्र सरकार

पर्यावरण और किसान हितों को नजरअंदाज करते हुए विकास की पैरोकारी पर प्रधानमंत्री को सीख के रूप में ही सही, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के संबंधों में विरोधाभास की धमक अब स्पष्ट सुनाई देने लगी है। यों तो यह विरोधाभासी संबंधों की शुरुआत की पहली आहट नहीं है, इन विरोधी संबधों का आगाज तभी हो गया था, जब यूपीए अध्यक्ष ने अपनी सरकार को अपरोक्ष रूप से नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन कर डाला था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की लगातार प्रधानमंत्री के कॉरपोरेट टोले को छुपी-छुपी सी चुनौती रूपी सीख तो उस आगाज की अनुगूंज भर है। दरअसल, यह निगमीकृत विकास के प्रबल पैरोकार गैर राजनीतिक नौकरशाह प्रतिनिधि प्रधानमंत्री और सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध एक राजनीतिक पार्टी प्रमुख के बीच के स्वाभाविक विरोधाभास हैं, जिनका एक दिन उभरना तय था। पिछली सरकार भी यूपीए की थी और उसके प्रधानमंत्री भी मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था पर अभिभूत मनमोहन सिंह ही थे। बावजूद इसके दोनों सरकारों में एक गुणात्मक अंतर वामपंथी दलों के समर्थन का है। पहली यूपीए सरकार को न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर वामपंथ का समर्थन था और इसीलिए वामपंथी सामाजिक एजेंडे को लागू करने और परोक्ष रूप से सरकार की आर्थिक नीतियों को विनियमित करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया गया। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, सूचना के अधिकार और महिला आरक्षण के लिए निरंतर कोशिशों जैसी उपलब्धियों के मद्देनजर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को एक सफल प्रयोग ही माना जाएगा, लेकिन वर्तमान यूपीए सरकार कोई धुर विरोधी विचारधाराओं का गठजोड़ नहीं है कि उसे दो अलग राजनीतिक धाराओं में समन्वय के लिए किसी बाहरी एवं परोक्ष नियंत्रण की आवश्यकता थी। बात सीधी और स्पष्ट है कि सोनिया गंाधी और कांग्रेस के नीति निर्माता उदारवादी आर्थिक नीतियों के अंधानुकरण के लिए अपनी राजनीतिक जमीन और राहुल गंाधी के भविष्य की संभावनाओं को कम करने का जोखिम मोल लेना नहीं चाहते हैं। राजनीतिक दायित्वों को समझने और आर्थिक नीतियों के लिए प्रतिबद्धताओं का यह टकराव कई मुद्दों पर रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून और विकास के लिए पर्यावरण की तबाही पर प्रधानमंत्री का रुख इस टकराव की ताजा बानगी है। वहीं माओवाद के मुद्दे पर गृहमंत्री की नीतियों से अलग रुख क्रमश: राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह जाहिर कर चुके हैं। अब ताजातरीन मामला मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को महासचिव दिग्विजय सिंह की सीख का है। यदि आपसी टकरावों के इन मामलो की गिनती करें तो उनकी सूची खासी लंबी और टकरावों को उर्वरा जमीन देने वाली है। खाद्य सुरक्षा पर कानून बनाने के सवाल पर यह भीतरी विरोधाभास पूरी तरह पहले ही उभर कर सामने आ चुका है। कांग्रेस अध्यक्ष ने खाद्य सुरक्षा बिल का जो प्रारूप सरकार को भेजा था, प्रधानमंत्री ने उसमें आमूल चूल परिवर्तन कर डाले। जिस पर सोनिया गंाधी ने प्रधानमंत्री को फिर से विचार करने के लिए कहा है। असल में सोनिया गंाधी द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून का प्रारूप राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की तरह कांग्रेस का बेहद महत्वाकांक्षी एजेंडा था। जिसे प्रधानमंत्री ने महज आर्थिक गणना के आधार पर पूरी तरह बदल डाला, जिस पर कांग्रेस के कई मंत्री और इस प्रारूप को तैयार करने में अहम भूमिका अदा करने वाले और लगातार सोनिया गांधी से संपर्क में रहने वाले वामपंथी रुझान वाले सामाजिक कार्यकर्ता भी इस कटौती से बेहद खफा हैं, लेकिन यह केवल खाद्य सुरक्षा के प्रारूप को बदलने का सवाल नहीं था। इससे पहले सूचना के अधिकार कानून में संशोधन के लिए भी प्रधानमंत्री ने यही सक्रियता और तत्परता दिखाई थी। प्रधानमंत्री सूचना अधिकार अधिनियम में कुछ बदलाव करना चाहते थे, विशेषतया ऐसे बदलाव, जिससे नौकरशाही के बचाव का रास्ता बन सके। मसलन, उनके पत्रों एवं फाइलों पर लिखी नोटिंग को सूचना अधिकार अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाए। दरअसल, उनकी यह कोशिश राजनीति और नौकरशाही के अंतर्विरोधों को उजागर करती है। प्रधानमंत्री का मानना है कि देश को सही ढंग से नौकरशाह ही चला सकते हैं, जिसके लिए उनकी शक्तियों को मिलने वाली चुनौतियों और बाधाओं को हटाकर उन्हें और शक्तिशाली किया जाना चाहिए। परन्तु इस मुद्दे पर भी कांग्रेस अध्यक्ष से उनके मतांतर उभरकर सामने आए और आखिरकार उनकी कोशिशें ठंडे बस्ते में चली गई। कुछ ऐसी ही स्थिति परमाणु दायित्व विधेयकर पर भी प्रधानमंत्री की रही है। यहां पर भी कांग्रेसी उनकी जल्दबाजी के कारणों को पचा नहीं पाए थे। आखिरकार कांग्रेस को परमाणु दायित्व बिल पर विपक्ष से संवाद शुरू करते हुए एक व्यापक सहमति का रास्ता अपनाना ही पड़ा। यह बात अलग है कि इस बिल पर प्रधानमंत्री की नीयत और प्राथमिकताएं अब बिल से अमेरिकी कंपनियों के विरोध के रूप में प्रतिध्वनित हो रही हैं। निगमीकृत विकास के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्राथमिकताएं और उसके प्रति उनकी व्याकुल प्रतिबद्धता तो कई बार सार्वजनिक हो चुकी हैं, लेकिन पिछले दिनों देश के चुनिंदा संपादकों के साथ बैठक में तथाकथित विकास के लिए उनकी हठधर्मिता और अर्थशास्त्रीय संवेदनहीनता भी पूरी तरह उजागर हो गई। जब नसीहत के तौर उन्होंने न्यायपालिका को उसकी सीमाएं बताने की कोशिश की। भूखी आबादी पर बाजार के नियमों को प्राथमिकता देते हुए उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अनाज मुफ्त में नहीं बांटा जा सकता है यानी उसके लिए दाम मिलना जरूरी है और दाम न मिलने की स्थिति में बेशक वह गोदामों में और उसके बाहर पड़ा सड़ जाए, मगर भूखों के पेट में नहीं जाएगा। मनमोहन सिंह के इस बयान का प्रत्युत्तर या कहें कि सरकार को अपनी प्राथमिकताएं बदलने का इशारा सोनिया गांधी की ओर से फौरन आ गया। कमोबेश यही स्थिति मानव संसाधन मंत्री के कामों और उस पर कांग्रेसी प्रतिक्ति्रया में दिखाई पड़ रही है। नई शिक्षा नीति को लेकर वह उसके वैज्ञानिक और तार्किक होने के बेशक लाख दावे करें, मगर शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञ और शिक्षा शास्त्री जानते हैं कि उच्च शिक्षा के स्तर पर होने वाले ये सुधार केवल निगमीकृत विकास को पूरा करने का औजार भर हैं। यही कारण है कि चिदंबरम के बाद कांग्रेस के कद्दावर महासचिव दिग्विजय सिंह ने अब कपिल सिब्बल को चुनौती दी है। दरअसल, प्रधानमंत्री को जहां एक तरफ निगमीकृत विकास निर्देशित और प्रेरित कर रहा है तो वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सलाहकारों में अभी तक भी वामपंथी रुझान रखने वाले बुद्धिजीवी समाजिक कार्यकर्ताओं का प्रभुत्व है। ग्रामीण रोजगार योजना, खाद्य सुरक्षा कानून, सूचना का अधिकार हो या अब भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण के सवाल, सभी महत्वकांक्षी योजनाओं में इसी नए वामपंथी खेमे का हाथ है। इनमें से कई जो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी नामित हैं, पूरे मीडिया जगत और कॉरपोरेट क्षेत्र में कांग्रेस अध्यक्ष के झोला गैंग के तौर पर भलीभांति जाने जाते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री और उनकी कॉरपोरेट मंडली की आक्रामकता तथाकथित विकास को लेकर जितनी बढ़ती जाएगी, उसका विरोध भी उतना ही मुखर होगा। क्योंकि सोनिया गांधी की चिंता विकास के कंपनीकरण से अधिक कांग्रेस की सत्ता और राहुल गांधी के भविष्य को लेकर अधिक है। वास्तव में यह विरोधाभासी प्रतिबद्धताओं में टकराव की गूंज है, जो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गठन से प्रतिध्वनित होना शुरू हो गई थी। एक तरफ सोनिया गांधी और कांग्रेस की राजनीतिक चिंताएं व अभियान हैं, जो अपनी खोई हुई जमीन फिर से पाना चाहते हैं और दूसरी तरफ परमाणु करार पर जीत के बाद अतिविश्वास से लबरेज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उदारवाद के प्रति प्रतिबद्धताएं जो कांग्रेस के लिए नित नई परेशानियां लेकर आती हैं। इसलिए अब फिर से सरकार पर एनएससी रूपी एक परोक्ष नियंत्रण की जरूरत है, जो कांग्रेस और उसकी राजनीतिक जमीन को बचाने वाले सामाजिक एजेंडा को लागू कर सके, लेकिन इस प्रकार का परोक्ष नियंत्रण क्या किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सेहतमंद हो सकता है। यदि भाजपा नीत एनडीए सत्ता में आती है और अपने परिवार के प्रमुख मोहन भागवत को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का मुखिया नामित करे तो सोचिए स्थिति क्या होगी। यदि सोनिया गंाधी और प्रधानमंत्री के बीच कोई नीतिगत टकराव है तो वह एक पार्टी प्रमुख होने की हैसियत से निर्णय करें कि कांग्रेस किन नीतियों पर सरकार को चलाना चाहती है। एक ही सरकार के भीतर इस प्रकार का सत्ता पक्ष और विपक्ष का खेल न कांग्रेस का ही कुछ भला कर सकता है, न देश का और न ही देश की जनता का, लेकिन इस सारी जद्दोजहद में एक बात तो तय है कि दो विपरीत सिरों की ओर खिसकते हुए सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अच्छे संबंधों की उल्टी गिनती अब शुरू हो चुकी है।

Saturday, August 28, 2010

सबका सिपाही

सिपाही भाई,
मिर्चपुर फिर आना
दम तोड़ते प्रतिरोध की
बेबसी की पिकनिक पर
आना तुम, अब
कलावती पर,
ख़त्म हो गई
तुम्हारी कलाबाजियों के बाद
विदर्भ की मरती ख्वाहिशों का
फिर तमाशा देखने
तुम आना
सिपाही  भाई,
फिर सजा है
बुंदेलखंड के
लुटे सपनो का बाज़ार
तुम्हारे लिए
सिपाही भाई,
तुम पहरेदार हो
हर विरोधी की जमीन के
मगर
काश, सिपाहीगिरी
कुछ काम आ पाती
कश्मीर की
नौजवान मौतों के,
आदिवासियों के सिपाही
तुम क्यूँ खड़े नहीं हुए
आबरू लूटा चुकी
मणिपुरी औरतों के साथ
तुम नज़र भी तो नहीं आए
खम्मम में
शहीद हुए किसानो के बीच
तुम्हारे घर के चारो ओर
फूटपाथ पर सोते डेढ़ लाख
दिल्ली के बेघरों से
क्या बैर है
तुम्हारी सिपाहीगिरी को
और, सिपाही भाई
तुम्हारी ख़ामोशी से
आज तक खुश है
मधु कोड़ा
तमिलनाडु के कई बड़े परिवार
तुम्हारे घर के सन्नाटे से
अपने सुख की चादर सिलते हैं
आज भी,
सिपाही भाई,
तुम्हारी सिपाहीगिरी से
ऐन्ठें हैं आजकल
पुराने राजनेताओं के
नए नौनिहाल कई
तुम सचमुच,
सबके सिपाही हो !