Monday, September 20, 2010
कलह से त्रस्त केंद्र सरकार
पर्यावरण और किसान हितों को नजरअंदाज करते हुए विकास की पैरोकारी पर प्रधानमंत्री को सीख के रूप में ही सही, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के संबंधों में विरोधाभास की धमक अब स्पष्ट सुनाई देने लगी है। यों तो यह विरोधाभासी संबंधों की शुरुआत की पहली आहट नहीं है, इन विरोधी संबधों का आगाज तभी हो गया था, जब यूपीए अध्यक्ष ने अपनी सरकार को अपरोक्ष रूप से नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन कर डाला था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की लगातार प्रधानमंत्री के कॉरपोरेट टोले को छुपी-छुपी सी चुनौती रूपी सीख तो उस आगाज की अनुगूंज भर है। दरअसल, यह निगमीकृत विकास के प्रबल पैरोकार गैर राजनीतिक नौकरशाह प्रतिनिधि प्रधानमंत्री और सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध एक राजनीतिक पार्टी प्रमुख के बीच के स्वाभाविक विरोधाभास हैं, जिनका एक दिन उभरना तय था। पिछली सरकार भी यूपीए की थी और उसके प्रधानमंत्री भी मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था पर अभिभूत मनमोहन सिंह ही थे। बावजूद इसके दोनों सरकारों में एक गुणात्मक अंतर वामपंथी दलों के समर्थन का है। पहली यूपीए सरकार को न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर वामपंथ का समर्थन था और इसीलिए वामपंथी सामाजिक एजेंडे को लागू करने और परोक्ष रूप से सरकार की आर्थिक नीतियों को विनियमित करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया गया। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, सूचना के अधिकार और महिला आरक्षण के लिए निरंतर कोशिशों जैसी उपलब्धियों के मद्देनजर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को एक सफल प्रयोग ही माना जाएगा, लेकिन वर्तमान यूपीए सरकार कोई धुर विरोधी विचारधाराओं का गठजोड़ नहीं है कि उसे दो अलग राजनीतिक धाराओं में समन्वय के लिए किसी बाहरी एवं परोक्ष नियंत्रण की आवश्यकता थी। बात सीधी और स्पष्ट है कि सोनिया गंाधी और कांग्रेस के नीति निर्माता उदारवादी आर्थिक नीतियों के अंधानुकरण के लिए अपनी राजनीतिक जमीन और राहुल गंाधी के भविष्य की संभावनाओं को कम करने का जोखिम मोल लेना नहीं चाहते हैं। राजनीतिक दायित्वों को समझने और आर्थिक नीतियों के लिए प्रतिबद्धताओं का यह टकराव कई मुद्दों पर रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून और विकास के लिए पर्यावरण की तबाही पर प्रधानमंत्री का रुख इस टकराव की ताजा बानगी है। वहीं माओवाद के मुद्दे पर गृहमंत्री की नीतियों से अलग रुख क्रमश: राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह जाहिर कर चुके हैं। अब ताजातरीन मामला मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को महासचिव दिग्विजय सिंह की सीख का है। यदि आपसी टकरावों के इन मामलो की गिनती करें तो उनकी सूची खासी लंबी और टकरावों को उर्वरा जमीन देने वाली है। खाद्य सुरक्षा पर कानून बनाने के सवाल पर यह भीतरी विरोधाभास पूरी तरह पहले ही उभर कर सामने आ चुका है। कांग्रेस अध्यक्ष ने खाद्य सुरक्षा बिल का जो प्रारूप सरकार को भेजा था, प्रधानमंत्री ने उसमें आमूल चूल परिवर्तन कर डाले। जिस पर सोनिया गंाधी ने प्रधानमंत्री को फिर से विचार करने के लिए कहा है। असल में सोनिया गंाधी द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून का प्रारूप राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की तरह कांग्रेस का बेहद महत्वाकांक्षी एजेंडा था। जिसे प्रधानमंत्री ने महज आर्थिक गणना के आधार पर पूरी तरह बदल डाला, जिस पर कांग्रेस के कई मंत्री और इस प्रारूप को तैयार करने में अहम भूमिका अदा करने वाले और लगातार सोनिया गांधी से संपर्क में रहने वाले वामपंथी रुझान वाले सामाजिक कार्यकर्ता भी इस कटौती से बेहद खफा हैं, लेकिन यह केवल खाद्य सुरक्षा के प्रारूप को बदलने का सवाल नहीं था। इससे पहले सूचना के अधिकार कानून में संशोधन के लिए भी प्रधानमंत्री ने यही सक्रियता और तत्परता दिखाई थी। प्रधानमंत्री सूचना अधिकार अधिनियम में कुछ बदलाव करना चाहते थे, विशेषतया ऐसे बदलाव, जिससे नौकरशाही के बचाव का रास्ता बन सके। मसलन, उनके पत्रों एवं फाइलों पर लिखी नोटिंग को सूचना अधिकार अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाए। दरअसल, उनकी यह कोशिश राजनीति और नौकरशाही के अंतर्विरोधों को उजागर करती है। प्रधानमंत्री का मानना है कि देश को सही ढंग से नौकरशाह ही चला सकते हैं, जिसके लिए उनकी शक्तियों को मिलने वाली चुनौतियों और बाधाओं को हटाकर उन्हें और शक्तिशाली किया जाना चाहिए। परन्तु इस मुद्दे पर भी कांग्रेस अध्यक्ष से उनके मतांतर उभरकर सामने आए और आखिरकार उनकी कोशिशें ठंडे बस्ते में चली गई। कुछ ऐसी ही स्थिति परमाणु दायित्व विधेयकर पर भी प्रधानमंत्री की रही है। यहां पर भी कांग्रेसी उनकी जल्दबाजी के कारणों को पचा नहीं पाए थे। आखिरकार कांग्रेस को परमाणु दायित्व बिल पर विपक्ष से संवाद शुरू करते हुए एक व्यापक सहमति का रास्ता अपनाना ही पड़ा। यह बात अलग है कि इस बिल पर प्रधानमंत्री की नीयत और प्राथमिकताएं अब बिल से अमेरिकी कंपनियों के विरोध के रूप में प्रतिध्वनित हो रही हैं। निगमीकृत विकास के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्राथमिकताएं और उसके प्रति उनकी व्याकुल प्रतिबद्धता तो कई बार सार्वजनिक हो चुकी हैं, लेकिन पिछले दिनों देश के चुनिंदा संपादकों के साथ बैठक में तथाकथित विकास के लिए उनकी हठधर्मिता और अर्थशास्त्रीय संवेदनहीनता भी पूरी तरह उजागर हो गई। जब नसीहत के तौर उन्होंने न्यायपालिका को उसकी सीमाएं बताने की कोशिश की। भूखी आबादी पर बाजार के नियमों को प्राथमिकता देते हुए उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अनाज मुफ्त में नहीं बांटा जा सकता है यानी उसके लिए दाम मिलना जरूरी है और दाम न मिलने की स्थिति में बेशक वह गोदामों में और उसके बाहर पड़ा सड़ जाए, मगर भूखों के पेट में नहीं जाएगा। मनमोहन सिंह के इस बयान का प्रत्युत्तर या कहें कि सरकार को अपनी प्राथमिकताएं बदलने का इशारा सोनिया गांधी की ओर से फौरन आ गया। कमोबेश यही स्थिति मानव संसाधन मंत्री के कामों और उस पर कांग्रेसी प्रतिक्ति्रया में दिखाई पड़ रही है। नई शिक्षा नीति को लेकर वह उसके वैज्ञानिक और तार्किक होने के बेशक लाख दावे करें, मगर शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञ और शिक्षा शास्त्री जानते हैं कि उच्च शिक्षा के स्तर पर होने वाले ये सुधार केवल निगमीकृत विकास को पूरा करने का औजार भर हैं। यही कारण है कि चिदंबरम के बाद कांग्रेस के कद्दावर महासचिव दिग्विजय सिंह ने अब कपिल सिब्बल को चुनौती दी है। दरअसल, प्रधानमंत्री को जहां एक तरफ निगमीकृत विकास निर्देशित और प्रेरित कर रहा है तो वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सलाहकारों में अभी तक भी वामपंथी रुझान रखने वाले बुद्धिजीवी समाजिक कार्यकर्ताओं का प्रभुत्व है। ग्रामीण रोजगार योजना, खाद्य सुरक्षा कानून, सूचना का अधिकार हो या अब भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण के सवाल, सभी महत्वकांक्षी योजनाओं में इसी नए वामपंथी खेमे का हाथ है। इनमें से कई जो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी नामित हैं, पूरे मीडिया जगत और कॉरपोरेट क्षेत्र में कांग्रेस अध्यक्ष के झोला गैंग के तौर पर भलीभांति जाने जाते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री और उनकी कॉरपोरेट मंडली की आक्रामकता तथाकथित विकास को लेकर जितनी बढ़ती जाएगी, उसका विरोध भी उतना ही मुखर होगा। क्योंकि सोनिया गांधी की चिंता विकास के कंपनीकरण से अधिक कांग्रेस की सत्ता और राहुल गांधी के भविष्य को लेकर अधिक है। वास्तव में यह विरोधाभासी प्रतिबद्धताओं में टकराव की गूंज है, जो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गठन से प्रतिध्वनित होना शुरू हो गई थी। एक तरफ सोनिया गांधी और कांग्रेस की राजनीतिक चिंताएं व अभियान हैं, जो अपनी खोई हुई जमीन फिर से पाना चाहते हैं और दूसरी तरफ परमाणु करार पर जीत के बाद अतिविश्वास से लबरेज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उदारवाद के प्रति प्रतिबद्धताएं जो कांग्रेस के लिए नित नई परेशानियां लेकर आती हैं। इसलिए अब फिर से सरकार पर एनएससी रूपी एक परोक्ष नियंत्रण की जरूरत है, जो कांग्रेस और उसकी राजनीतिक जमीन को बचाने वाले सामाजिक एजेंडा को लागू कर सके, लेकिन इस प्रकार का परोक्ष नियंत्रण क्या किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सेहतमंद हो सकता है। यदि भाजपा नीत एनडीए सत्ता में आती है और अपने परिवार के प्रमुख मोहन भागवत को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का मुखिया नामित करे तो सोचिए स्थिति क्या होगी। यदि सोनिया गंाधी और प्रधानमंत्री के बीच कोई नीतिगत टकराव है तो वह एक पार्टी प्रमुख होने की हैसियत से निर्णय करें कि कांग्रेस किन नीतियों पर सरकार को चलाना चाहती है। एक ही सरकार के भीतर इस प्रकार का सत्ता पक्ष और विपक्ष का खेल न कांग्रेस का ही कुछ भला कर सकता है, न देश का और न ही देश की जनता का, लेकिन इस सारी जद्दोजहद में एक बात तो तय है कि दो विपरीत सिरों की ओर खिसकते हुए सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अच्छे संबंधों की उल्टी गिनती अब शुरू हो चुकी है।
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