Monday, September 20, 2010

सामाजिक न्याय या जाति का संघर्ष

आरक्षण का आंदोलन एक बार फिर उत्पात मचा रहा है। हालांकि आरक्षण के विचार की उत्पति सामाजिक विषमता जनित न्याय की ऐतिहासिक आवश्यकता का प्रतिफल है, परंतु हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों उठा आरक्षण का आंदोलन सामाजिक समानता की न्यायिक मांग से कहीं ज्यादा जाट राजनीति और सामाजिक वर्चस्व की लड़ाई का ऐसा भावनात्मक मुद्दा है, जो नए सामाजिक संघर्षो की भी जमीन तैयार कर रहा है। इसके अलावा राजस्थान के गुर्जर आरक्षण आंदोलन ने भी इस आंदोलन के लिए प्रेरणा का काम किया है। वास्तव में आरक्षण दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व देकर सामाजिक समानता की ओर ले जाने की राह का एक माध्यम भर है। केवल आरक्षण ही सामाजिक न्याय की संपूर्ण व्याख्या या व्यवस्था नहीं है। इस संदर्भ में यदि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाण का उदाहरण देखें तो यहां की स्थिति एकदम भिन्न है। यहां सवाल आनुपातिक प्रतिनिधित्व से कहीं अधिक अपने सामाजिक प्रभुत्व को बनाए रखने का है और आरक्षण की यह मांग भी उसी प्रभुत्व को बनाए रखने की एक समुदाय विशेष की रणनीति ही दिखाई देती है। वास्तव में यदि देखा जाए तो आरक्षण और आरक्षण के लिए संघर्ष अब नई तरह की सामाजिक अवस्था में प्रवेश कर चुका है। भूमंडलीकरण के इस दौर में जब सरकारी नौकरियों की संभावनाएं दिन-प्रतिदिन सीमित हो रही हैं, तब हरियाण और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संसाधनों पर काबिज जातियों का आक्रामक आंदोलन एक जाति विशेष की लामबंदी के राजनीतिक नारे से कुछ अधिक दिखाई नहीं देता। इन तरह आज आरक्षण न्याय की मांग नहीं, बल्कि एक तरह के राजनीतिक जातिवाद और अपनी शक्ति का प्रदर्शन मात्र बनकर रह गया है। असल में इस राजनीतिक जातिवाद को एक दिशाहीन लोकतांत्रिक विकास की एक विसंगति के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह जनवादी व्यवस्था में वोट की राजनीति के लिए सामुदायिक ध्रुवीकरण के परिणामस्वरूप पैदा होता है। वोट की राजनीति के कारण ही पहचान की राजनीति और उसकी खेमेबंदी का जन्म होता है, जो अंततोगत्वा एक प्रकार के राजनीतिक जातिवाद में परिवर्तित होता है। जिस प्रकार राजनीतिक जातिवाद का सहारा लेकर राजस्थान में कर्नल बैंसला या किरोडीमल मीणा नेता बने, उसे देखते हुए ही हरियाणा और प. उत्तर प्रदेश के कुछ संपन्न लोगों को भी ऐसे आंदोलन के लिए प्रेरणा मिल रही है। वास्तव में हरियाणा के इस आरक्षण आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाट वर्चस्व, जाट राजनीति के अंदरूनी समीकरण और परंपरागत दबंगई की मानसिकता सरीखे कई पहलू हैं। हरियाणा में भजन लाल युग के खात्मे से सत्ता की लड़ाई दो जाट क्षत्रपों में बंट चुकी है। इस कारण हरियाणा की पूरी राजनीति जाटों की खेमेबंदी के समीकरणों में उलझकर रह गई है। इसी कारण से जाटों का यह राजनीतिक जातिवाद एक अलग रूप एवं ऊंचाई पर दिख रहा है। आरक्षण का यह आंदोलन केंद्र सरकार के खिलाफ जाए या राज्य सरकार के, एक बात तो तय है कि इसका नुकसान जाटों के नेता के तौर पर स्थापित होने की कोशिश कर रहे वर्तमान जाट मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को ही होगा। आखिर इस आंदोलन पर ओमप्रकाश चौटाला की खामोशी के भी निहितार्थ हैं। यदि आरक्षण के इस आंदोलन की कमान चौटाला परिवार प्रत्यक्ष तौर पर संभालता तो जाटों में दो फाड़ होनी निश्चित थी। चौटाला की खामोशी कम से कम आरक्षण पर जाटों की एकता को सुनिश्चित कर ही रही है। हरियाणा में सत्ता और विपक्ष दोनो ही तरफ जाट नेता हैं और एक की सत्ता गंवाने का अर्थ है दूसरे को सत्ता की गारंटी। इस आरक्षण आंदोलन की उग्रता में एक जाति विशेष की दबंगई की मानसिकता और उसको मिल रही चुनौतियां भी हैं। जाट हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक दबंग जाति के रूप में जानी जाती है, परंतु अब इन्हें चुनौतियां भी मिल रही हैं जिससे जाटों में एक प्रकार की व्याकुलता देखी जा सकती है। यही व्याकुलता इस उग्र आंदोलन के लिए ऊर्जा का काम कर रही है। पिछले दिनों गोहाना और मिर्चपुर में दलित कांड जाट जाति की दबंगई का जीवंत उदाहरण है तो वहीं यह घटना उनकी इस दबंग मानसिकता को मिल रही चुनौती का भी सबूत है। ध्यान रहे हिसार के मिर्चपुर कांड में राज्य सरकार के शुरू में असहयोगी रवैये के बावजूद न्यायपालिका ने इस मामले में दखल देते हुए 123 लोगों को जेल भिजवाया। देखने से तो यह महज एक गांव की ही घटना भर थी, लेकिन जाटों की दबंग मानसिकता के जानकार समझ सकते हैं कि इसे पूरा जाट समुदाय अपने अहम की लड़ाई मान रहा है। यही कारण है कि इस घटना के बाद यह जाति अपनी दबंगई और शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए आंदोलित हो रही है। जो शक्ति प्रदर्शन राज्य और केंद्र सरकार को झुका सकता है, उसके सामने गांव की गरीब दलित जातियों की क्या बिसात? परंतु छह दशक के लोकतांत्रिक व्यवहार ने आंशिक ही सही, भारतीय जनमानस में प्रतिरोध की क्षमता का विकास तो किया ही है। आरक्षण पर प्रतिरोध का यही स्वर पिछले दिनों एक टीवी चैनल की चर्चा में जाने-माने दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद के वक्तव्य में सुनाई दिया। उन्होंने इस आरक्षण की मांग को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि दलित और आदिवासी आरक्षण को छोड़कर बाकी किसी भी तरह की आरक्षण की मांग एक सामाजिक और राजनीतिक पाखंड है। यह एक ऐसे दलित चिंतक का वक्तव्य है, जो देश के सबसे मजबूत दलित राजनीतिक आंदोलन के बौद्धिक आधार का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अब यदि भारतीय दलित राजनीति इस दिशा में अपनी सोच और रणनीति तय करती है, तब इसे देश में एक नए सामाजिक संघर्ष की आहट ही समझा जाना चाहिए। यह नया सामाजिक संघर्ष भारतीय गणराज्य के विकास की कौन-सी पटकथा लिखेगा, यह आसानी से समझा जा सकता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आसपास में कुछ जातियों की राजधानी को बंधक बनाने की क्षमता, स्थिति एवं समय-समय पर उससे मिलने वाला प्रतिफल भी इस प्रकार के आंदोलनों के लिए ऊर्जा का काम करता है। दरअसल, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कुछ खास दबंग जातियों ने अपनी इसी क्षमता के कारण ब्लैकमेलिंग की एक नई राजनीति ईजाद की है। इसका ताजातरीन उदाहरण है हाल में मथुरा में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन, जिससे सत्ता से लेकर विपक्ष तक हर रंग की राजनीति चिंतित हो गई और देश के सभी नेता मथुरा दौड़ पडे़, दूसरी तरफ कई वर्षो से अपनी जमीन बचाने के लिए उड़ीसा में पास्को कंपनी के विरुद्ध जारी आंदोलन है जिसकी सुध लेने की फुर्सत भी किसी को नहीं। वास्तव में एक जाति विशेष की राजधानी को बंधक बनाने की क्षमता आज के ब्लैकमेलिंग की राजनीति को बेहद रास आ रही है। कभी दिल्ली के पानी को रोक देने, कभी दूध बंद कर देने और कभी दिल्ली को चारों तरफ से सील करने की दबंग धमकियां इन उत्पातियों के प्रमुख औजार हैं। दिल्ली की जीवन रेखा को ध्वस्त करने की इनकी ताकत ही इनके आंदोलनों की जीवनी शक्ति है और इसके सामने सरकार तुरंत झुकती भी है। परंतु इस प्रकार की अराजक राजनीति का फैलाव राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा है जो अंततोगत्वा देश में एक नए प्रकार की राजनीतिक अराजकता और खुली गुंडागर्दी की नई परंपरा की राह तैयार करने का काम करेगा। वास्तव में इस तरह की स्थितियां इन क्षेत्रों में व्यापक सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलनों के अभाव एवं वाम जनवादी आंदोलनों में आए भटकाव के कारण भी पैदा हुइ है। यदि प्रगतिशील शक्तियां बगैर वस्तुगत स्थितियों को जाने और उनका विश्लेषण किए अपनी विचारधारा को एक फॉर्मूले की तरह आजमाते हुए राजनीति करेंगी तो वह भी एक प्रकार के संकीर्णतावाद का ही शिकार होंगी। सामाजिक संरचना का विश्लेषण किए बिना सामाजिक सवालों से बचकर इन क्षेत्रों में आर्थिक आधार पर वर्ग संघर्षो की बात करना बेमानी है। प. उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के ये ऐसे इलाके हैं जहां परंपरागत विश्लेषणों से हटकर वस्तुस्थिति के मुताबिक पहल करने की आवश्यकता है। मध्यम और छोटी जोत वाले किसानों की बहुलता वाले ये इलाके अ‌र्द्ध कबीलाई और सांमती अवशेषों वाले मिश्रित अधकचरे समाज का उदाहरण हैं, जहां आर्थिक से अधिक सामाजिक सवाल प्रमुख हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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